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रविवार, 2 मई 2021

चुप्पियां

किसी के तीखे शब्दों से जब दिल दुख रहा है,
तब भी हंसना न जाने, रोने से भी ज्यादा क्यों जरूरी था,
धीरे धीरे जब सब साथ छोड़ रहे है,
तब भी उस भीड़ का हिस्सा बनना ना जाने अकेले रहने से ज्यादा क्यों जरूरी था
चुप्पियां बढ़ती जा रही है,
उन सारी जगहों पर जहां बोलना जरूरी था।

अब जब ख़्वाब आ ही नहीं रहे है,
तब भी नींद की राह देखना ना जाने सूरज का इंतजार करने से ज्यादा क्यों जरूरी था,
अब जब बेचैनियां बेशुमार बढ़ती जा रही है,
तब भी सब्र करना ना जाने सुकून ढूंढने से ज्यादा क्यों जरूरी था,
चुप्पियां बढ़ती जा रही है,
उन सारी जगहों पर जहां बोलना जरूरी था।

अब वो अजीज़ ख्वाहिशें हमारी रद्दी हुए जा रही है,
तब भी उन्हें अलविदा कह देना ना जाने उनका हाथ पकड़ने से ज्यादा क्यों जरूरी था,
धीमे धीमे जिंदगी वक्त की आंच पर पकती जा रही है,
तब उसकी आंच बुझा देना ना देना ना जाने उसके पकने देने से ज्यादा क्यों जरूरी था,
चुप्पियां बढ़ती जा रही है,
उन सारी जगहों पर जहां बोलना जरूरी था।

माना रिश्तों में गांठें बढ़ती जा रही है,
तब भी उस धागे को बदल देना ना जाने पुरानी गांठे सुलझाने से ज्यादा क्यों जरूरी था,
काली घटा अब छंटती जा रही है,
तब भी खिड़कियां बंद करना ना जाने खुली हवा में सांस लेने से ज्यादा क्यों जरूरी था,
मुश्किलें रोज़ बढ़ती जा रही है,
तब भी अपने कदम पिछे हटा लेना ना जाने उनका डटकर सामना करने से ज्यादा क्यों जरूरी था
चुप्पियां बढ़ती जा रही है,
उन सारी जगहों पर जहां बोलना जरूरी था।


4 टिप्‍पणियां:

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